आज शाम को ऑफिस से निकलने से पहले रेस्टरूम के शीशे में जब खुद को देखा तो एक पल को रुक सा गया था.. ब्लेज़र पहने अपने आपको एक प्रोफेशनल बन्दे की तरह देखना एक अलग अनुभव होता है शायद.. पहले कभी गौर नहीं किया था... यूँ ही अचानक कॉलेज का फर्स्ट इयर याद आ गया... याद आया कि टाई बांधनी नहीं आती थी .. लॉबी में हम कुछ लोग थे जिनकी टाई त्यागी बांध दिया करता था.. आज खुद को शीशे में देखकर वो कुछ पल याद आ गए.. "फ्रेशर पार्टी" से पहले त्यागी मेरी टाई तैयार कर रहा था.. १०-१२ साल से खुद ही तैयार होके स्कूल जाता था मैं .. उस से पहले माँ ने कभी कभार थोडी बहुत मदद कर दी होगी तैयार होने में, पर उस दिन जिस तल्लीनता के साथ त्यागी टाई बाँध रहा था वो पल स्मृति में हमेशा के लिए छप गए...
त्यागी याद आया तो दर्शन भी याद आ ही जाता है.. हालाँकि इसका उल्टा कम ही होता है कि दर्शन याद आये तो त्यागी भी याद आ जाये और उसके अपने स्वाभाविक कारण भी हैं..
हम तीन दोस्त थे... दोस्त अक्सर एक जैसे होते हैं, एक जैसी आदतों वाले या फिर व्यवहार वाले .. हम तीन अलग अलग दिशाएं थे.. सब कुछ सही था बस एक चौथी दिशा की कमी थी.. वरना त्यागी पूर्व था दर्शन पश्चिम और तो मैं एकदम उत्तर.. कुल मिलाजुलाकर हम तीनो बहुत अलग थे.. पर हम बहुत अच्छे दोस्त थे.. आज भी हैं पर जिंदगी के विस्तार में ये रिश्ता दोस्ती के तराजू में कभी ऊपर तो कभी नीचे होता रहता है..
हाँ, तो बात त्यागी की हो रही थी.. बहुत हिम्मती लड़का है जी.. कोई भी काम बोल दो.. हमेशा साथ देने को तैयार.. पर शर्त ये कि काम कुछ उल्टा होना चाहिए.. मतलब कोई तो रुल ब्रेक होना चाहिए ऐसा कोई काम हो ..
खैर त्यागी को कुछ बोलने जाओ तो कम से कम सुनता तो था.. भगवान ही जानता है कि पल्ले कितना पड़ता था पर सुनता तो था कम से कम ... इसके ठीक उलट दर्शन ... उसे कुछ सुनाने जाओ तो उसके बचपन की कम से कम २०-३० कहानियां सुनके वापस आना पड़ता था... २०-३० तो ज्यादा हो गयी पर १६-१७ तो भाई हसीं मजाक में सुना ही देता था..
अब व्यक्तित्व का टकराव देखिये साहब.. एक शुरुआत के कुछ साल सिर्फ लड़कियों से घिरा रहा तो दूसरा दूर भागता रहा.. ( हालाँकि ऐसा सिर्फ सांत्वना देने के लिए लिखा जा रहा है..) और कॉलेज के आखिरी सालों में दोनों ने रोल बदल लिए.. अब पहला लड़कियों से भागने की कोशिश करता था तो दूसरा परेशान था कि कहानी कहाँ आगे बढाई जाये... अब ये विचार का एक अलग मुद्दा हो सकता है कि हम तीनो ही लड़कियों के मामले में उस कॉलेज से कोरे हाथ ही बाहर आये, इतनी तमाम कहानियों के बावजूद भी.. मैं उन समस्त कहानियों की नायिकाओं एवं रकीबों को तह-ए-दिल से माफ़ करता हूँ जिसके नायक हममें से कोई भी रहा हो....
हाँ जी , मुद्दे पे वापस आते हैं.. त्यागी अपनी बास्केटबाल टीम का कप्तान था... नहीं नहीं भाई मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ...सच में वो कप्तान था..
खैर उसका बस चलता तो वो हर स्पोर्ट्स टीम का कैप्टेन बन सकता था.. पर शराफत से भाई ने मुझसे बोला.. "अबे !!! जो खेलना आता है उसी का तो कैप्टेन बनूँगा ना.." मैंने भी सोचा बात में दम तो है.. पर फिर बास्केटबाल क्यूँ ?
खैर दर्शन भी अपनी टीम का कैप्टेन था.. क्रिकेट या बालीबाल का शायद.. अब शायद इसीलिए कि जिस टीम की कप्तानी वो कर रहा हो.. उस टीम को तो छोडिये मुझे तो डर था कि लोग कहीं वो खेल देखना ही ना छोड़ दें कॉलेज में.. पर शुक्र है ऐसा हुआ नहीं. लोगो की दिलचस्पी बरक़रार रही.. मैं भी खेल लेता था कभी कभी.. अब जिसके दो दोस्त कप्तान हों वो कुछ खेले ना तो धिक्कार है ऐसी दोस्ती पे.. मुझे तो बल्कि प्रमाणपत्र भी मिला है क्रिकेट में प्रथम स्थान पाने को..वो अलग बात है कि मैंने पूरे टूर्नामेंट में सिर्फ ७ बाळ के लिए फील्डिंग करी है.. बैटिंग और बालिंग तो खैर छोडिये..
चलो, पढाई की बात करते हैं.. दर्शन की तरह दर्शन की पढाई भी रहस्यमयी थी, कब कहाँ कैसे ये सवाल आज भी जस के तस बरक़रार हैं .... और त्यागी की तरह त्यागी की पढाई रोमांच से भरपूर.. रोमांच की पराकाष्ठा देखिये त्यागी दिन के आधे से अधिक समय लाइब्रेरी में ही पढाई करता था.. पर दोनों ने गाहे-बगाहे बहुत से और लोगो के साथ मिलकर मेरी काफी मदद की है और सच कहूँ तो मेरे इंजीनियरिंग पूरा कर सकने में दोनों का बहुत बड़ा योगदान है..
किस्से कई हैं , अंतर कई हैं, बातें बहुत हैं.. पर कोई चीज अगर सिर्फ एक है तो वो है दोस्ती..
सारांश में कहूँ तो इतना कि मेरे दोनों दोस्तों के व्यक्तित्व में जो अंतर था उसने मुझे एक जगह दी उनके बीच में अपनी हसरतों के पल सकने की.. दोनों जितने ज्यादा अलग थे एक दुसरे से, हम तीनो उतने ही करीब थे..
कभी कभी दर्शन कहता है कि जब उसे मदद कि जरूरत होगी तो मेरे पास आने के बजाय त्यागी से मदद माँगेगा.. और ये इस पूरे ब्लॉग का इकलौता ऐसा सच है जो मजाक नहीं है..
कल मेरा जन्मदिन है :) तो सोचा उससे पहले अपने दो बेहतरीन दोस्तों को याद करूँ ताकि नए साल में प्रवेश करते हुए दोस्ती को लेकर मेरी जो इच्छाएं है.. वो अपना मकाम हासिल कर सकें..
इति समाप्त:
जीवन के अहसासों को लफ्ज़ देने की ये मेरी कोशिश.. कहीं सिर्फ तेरे नाम में सिमट के ना रह जाए...
Monday, October 5, 2009
Saturday, September 19, 2009
उन शामों की रफ़्तार
वो शामें कभी कभी आँखों से यूँ ही टकरा जाती हैं..
दिसम्बर का जाड़ा होता था, foundation day बस ख़त्म हुआ ही होता था.. और semester exams आने वाले होते थे.. पढाई भी लगभग ख़त्म हो चुकी होती थी.. बस कुछ practicals निपटाने होते थे..
कॉलेज ख़त्म होते ही हॉस्टल से change करके cafeteria जाना होता था.. और रास्ते में mess से अपने हिस्से की चाय और snacks लेने भी जरूरी होते थे.. हिस्सा ही होता था वो... चाहे वो कैसा भी हो खाने या पीने में, पर लेना जरूरी सा लगता था..
ऐसी भी कई चीजे लगती थी जिसे ना करते तो कोई फर्क नहीं पड़ता, पर फिर भी करनी ही होती थी... कुल मिला जुला के अपना हिस्सा वसूल करना होता था..
सर्दियाँ कोई बहुत सुहानी नहीं होती थी.. हमेशा ठिठुरने वाली होती थी. लिहाजा पता होता था कि २ घंटे में अँधेरा हो जायेगा, बाहर घूमना थोडा मुश्किल होगा..तो बस वो २ घंटे होते थे जीने के लिए, सारे दोस्तों के साथ, हंसी और मजाक के बीच॥ एकदम खुल के जीने होते थे वो २ घंटे॥
सूरज छिपने के बाद अँधेरा होने से पहले जितनी रौशनी बिखर सकती थी.. उतनी ही बिखरती थी चप्पे चप्पे पे.. कहीं वो ७ लोग एक घेरे में खड़े होके आठवें की जान निचोड़ रहे होते थे.. तो कहीं सिर्फ दो लोग अपनी आपसी समझदारी के बलबूते पचासों आँखों के बीच अपने होने के अहसास से पुलकित सा महसूस कर रहे होते थे... २०-२५ लोग ऐसे भी होते थे..जो कॉलेज uniform को वर्दी की तरह पहन के घूम रहे होते थे... खैर एक अलग मंजर होता था... हर चेहरा जाना पहचाना होता था.. पर हर रूप अलग लगता था.. समय भागता सा महसूस होता था.. ख़त्म होती सी समयसीमा..
वक्त रुकता तो नहीं कभी.. उन दिनों तो ठहरता भी नहीं था...कोहरे की एक हलकी सी परत छाने लगती थी॥ लड़कियां वापस अपने अपने हॉस्टल की तरफ चली जाती थी.. और पीछे छूट जाता था बंजर cafeteria.. वो २ घंटो की चहल पहल के बाद वो cafeteria ऐसा लगता था मानो रेगिस्तान अपने अतीत में हरा भरा होने की दुहाई दे रहा हो.. कुहरा और घना होता जाता था.. कुछ लोग हॉस्टल आ जाते थे.. कुछ mess से dinner करके ही लौटते थे... आश्चर्य होता था, cafeteria और academics block के आसपास का माहौल सिर्फ २ घंटे में सिमट के Mess और PMC के बीच स्थापित हो जाता था..
वही वर्तमान पर हँसते चेहरे , भविष्य से बेखौफ आँखें और अतीत से अनजान वक्त के दरिया में रह रहके हिलोरें मारते हुए अरमानो की लहरें... वो सब नजर आता था... कुछ पलों के लिए ही सही १०० मीटर के उस रास्ते पर ज़िन्दगी नाचती थी... और घुंघुरू तोड़ के नाचती थी...
कोहरा और गहराता जाता.. बस फिर एक फ़र्ज़ के तरह कॉलेज के gate को छूना भर बाकी रह जाता था.. अनंतकाल से इंसान सिर्फ यही तो कर पाया है .. बार बार अपनी हदों को छूने भर की कोशिश.. हमारी हद्द भी बस उसी gate तक थी...
कुहरे के साथ अँधेरा घुलने लगता तो अहसास होता था कि सर्दियाँ शुरू हो गयी हैं॥ सब रास्ते ख़ुद को समेटने लगते थे॥ अगले २० घंटे बस इसी रफ्तार से गुजरने होते थे.. फिर एक नयी शाम के लिए , एक अलग ही वेग के साथ...
दिसम्बर का जाड़ा होता था, foundation day बस ख़त्म हुआ ही होता था.. और semester exams आने वाले होते थे.. पढाई भी लगभग ख़त्म हो चुकी होती थी.. बस कुछ practicals निपटाने होते थे..
कॉलेज ख़त्म होते ही हॉस्टल से change करके cafeteria जाना होता था.. और रास्ते में mess से अपने हिस्से की चाय और snacks लेने भी जरूरी होते थे.. हिस्सा ही होता था वो... चाहे वो कैसा भी हो खाने या पीने में, पर लेना जरूरी सा लगता था..
ऐसी भी कई चीजे लगती थी जिसे ना करते तो कोई फर्क नहीं पड़ता, पर फिर भी करनी ही होती थी... कुल मिला जुला के अपना हिस्सा वसूल करना होता था..
सर्दियाँ कोई बहुत सुहानी नहीं होती थी.. हमेशा ठिठुरने वाली होती थी. लिहाजा पता होता था कि २ घंटे में अँधेरा हो जायेगा, बाहर घूमना थोडा मुश्किल होगा..तो बस वो २ घंटे होते थे जीने के लिए, सारे दोस्तों के साथ, हंसी और मजाक के बीच॥ एकदम खुल के जीने होते थे वो २ घंटे॥
सूरज छिपने के बाद अँधेरा होने से पहले जितनी रौशनी बिखर सकती थी.. उतनी ही बिखरती थी चप्पे चप्पे पे.. कहीं वो ७ लोग एक घेरे में खड़े होके आठवें की जान निचोड़ रहे होते थे.. तो कहीं सिर्फ दो लोग अपनी आपसी समझदारी के बलबूते पचासों आँखों के बीच अपने होने के अहसास से पुलकित सा महसूस कर रहे होते थे... २०-२५ लोग ऐसे भी होते थे..जो कॉलेज uniform को वर्दी की तरह पहन के घूम रहे होते थे... खैर एक अलग मंजर होता था... हर चेहरा जाना पहचाना होता था.. पर हर रूप अलग लगता था.. समय भागता सा महसूस होता था.. ख़त्म होती सी समयसीमा..
वक्त रुकता तो नहीं कभी.. उन दिनों तो ठहरता भी नहीं था...कोहरे की एक हलकी सी परत छाने लगती थी॥ लड़कियां वापस अपने अपने हॉस्टल की तरफ चली जाती थी.. और पीछे छूट जाता था बंजर cafeteria.. वो २ घंटो की चहल पहल के बाद वो cafeteria ऐसा लगता था मानो रेगिस्तान अपने अतीत में हरा भरा होने की दुहाई दे रहा हो.. कुहरा और घना होता जाता था.. कुछ लोग हॉस्टल आ जाते थे.. कुछ mess से dinner करके ही लौटते थे... आश्चर्य होता था, cafeteria और academics block के आसपास का माहौल सिर्फ २ घंटे में सिमट के Mess और PMC के बीच स्थापित हो जाता था..
वही वर्तमान पर हँसते चेहरे , भविष्य से बेखौफ आँखें और अतीत से अनजान वक्त के दरिया में रह रहके हिलोरें मारते हुए अरमानो की लहरें... वो सब नजर आता था... कुछ पलों के लिए ही सही १०० मीटर के उस रास्ते पर ज़िन्दगी नाचती थी... और घुंघुरू तोड़ के नाचती थी...
कोहरा और गहराता जाता.. बस फिर एक फ़र्ज़ के तरह कॉलेज के gate को छूना भर बाकी रह जाता था.. अनंतकाल से इंसान सिर्फ यही तो कर पाया है .. बार बार अपनी हदों को छूने भर की कोशिश.. हमारी हद्द भी बस उसी gate तक थी...
कुहरे के साथ अँधेरा घुलने लगता तो अहसास होता था कि सर्दियाँ शुरू हो गयी हैं॥ सब रास्ते ख़ुद को समेटने लगते थे॥ अगले २० घंटे बस इसी रफ्तार से गुजरने होते थे.. फिर एक नयी शाम के लिए , एक अलग ही वेग के साथ...
Saturday, August 8, 2009
अक्तूबर २००२
मैं असीम अनंत और अपराजेय का,
बन न पाऊं कभी विकास |
हो सके प्रभु, गर तेरे बस में,
कर दे जीवनशक्ति का विनास |
मैं झूलता रहूँ कुपित सृष्टिपथ पर,
न न्योछावर हो जाऊं किसी शपथ पर,
कभी न चलूँ अब इस ज़मीन पर,
कर दे सवार मुझे मृत्युरथ पर,
अपनी अक्षमता और अविवेक का,
हो न पाए कभी ह्रास |
हो सके प्रभु, गर तेरे बस में,
कर दे जीवनशक्ति का विनास |
मैं अब्रह्माण्ड की माया का जालभुक्त न बनू कभी,
एक एक कर तोड़ दे, साथ मेरे हैं जो सभी,
लोभी बन जाऊं प्रलोभ का, जी ना पाऊं चैन से,
मृत्यु आ अंक लगा, और वरन कर मेरा अभी|
भूत मेरा खो चुका और भविष्य बना दे तू इतिहास |
हो सके प्रभु, गर तेरे बस में,
कर दे जीवनशक्ति का विनास |
बन न पाऊं कभी विकास |
हो सके प्रभु, गर तेरे बस में,
कर दे जीवनशक्ति का विनास |
मैं झूलता रहूँ कुपित सृष्टिपथ पर,
न न्योछावर हो जाऊं किसी शपथ पर,
कभी न चलूँ अब इस ज़मीन पर,
कर दे सवार मुझे मृत्युरथ पर,
अपनी अक्षमता और अविवेक का,
हो न पाए कभी ह्रास |
हो सके प्रभु, गर तेरे बस में,
कर दे जीवनशक्ति का विनास |
मैं अब्रह्माण्ड की माया का जालभुक्त न बनू कभी,
एक एक कर तोड़ दे, साथ मेरे हैं जो सभी,
लोभी बन जाऊं प्रलोभ का, जी ना पाऊं चैन से,
मृत्यु आ अंक लगा, और वरन कर मेरा अभी|
भूत मेरा खो चुका और भविष्य बना दे तू इतिहास |
हो सके प्रभु, गर तेरे बस में,
कर दे जीवनशक्ति का विनास |
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