Tuesday, December 25, 2007

मैं खुश हूँ

http://kavita.hindyugm.com/2008/01/blog-post_9527.html?showComment=1200408480000

जी , मैं खुश हूँ .
आपने सही सुना , कि मैं खुश हूँ .

शायद आज किसी को रोते नहीं देखा ,
नंगे बदन फ़ुटपॉथ पर सोते नहीं देखा ,
शायद रिश्तों की कालिख छुपी रही आज,
तो किसी को टूटी माला पिरोते नहीं देखा.

आज भी भगवान को किसी की सुनते नहीं देखा,
पर हाँ, आज किसी के सपनों को लुटते नहीं देखा,
तन्हा नहीं देखा , किसी को परेशान नहीं देखा,
पाई पाई को मोहताज, सपनों को घुटते नहीं देखा.

बैचैनी नहीं दिखी, कहीं मायुसी नजर ना आयी ,
कहीं कुछ गलत होने की भी कोई खबर ना आयी,
सब कुछ आज वाकई इतना सही क्यों था आखिर,
कि दर्द ढूंढती मेरी निगाहें कहीं पे ठहर ना पायी .

मैं खुश हूं वाकई, पर कुछ हो जाने से नहीं
कुछ ना हो पाने से खुश हूँ कुछ पाने से नहीं
किसी के जाने से खुश हूँ, किसी के आने से नहीं
किसी के रूठ जाने से, किसी के मनाने से नहीं

पर ये खुशी की खनक मेरे आस पास ही थी,
कई अनदेखी आँखें आज भी उदास ही थी,
मैनें कुछ नहीं देखा, का मतलब खुशहाली तो नहीं
मेरे अकेले की खुशी, एक अधूरा अहसास ही थी..

वो दिन आयेगा शायद, जब हर कोई खुशी देख सकेगा,
बिन आँसू और गमो के जब हर कोई रह सकेगा.
खुशी सही मायनों में वो होगी तब,
"मैं खुश हूँ" ... जिस दिन हर इन्सान ये कह सकेगा..

Tuesday, July 17, 2007

पर एक पल की प्रीत ना पाते


कुछ तो होता पास अपने, जो कभी लुटा ना पाते,
कोई तो याद चुभती इतनी , कि कभी भुला ना पाते,
कोई तो बात इतनी कड़वी होती, कि किसी को सुना ना पाते,
कोई तो होता खुश इस कदर, कि हम भी उसे रुला ना पाते.

ख़ुशियों की होती इतनी कीमत, कि किसी को चुका ना पाते,
कोई तो रात होती इतनी अभागी, कि किसी को सुला ना पाते,
आसूं बहते रोज़ यूं ही, मगर इन आखोँ को सुजा ना पाते,
कोई तो आग जलती सीने मे, जिसे चाहकर भी बुझा ना पाते.

कोई तो सबक होता ऐसा, जिसे किसी को सिखा ना पाते,
कोई तो ज़ख्म होता इतना गहरा, कि कभी तुम्हें दिखा ना पाते,
कभी तो मरता वक़्त युं भी, कि तकदीर से भी ज़िला ना पाते,
कोई तो बिछुड़ता इस कदर, कि उमर भर फ़िर मिला ना पाते.

कोई ज़ुर्म किया होता ऐसा, कि उसकी हम सज़ा ना पाते,
पाते दुश्मनी हर जगह, पर दोस्त से कभी दगा ना पाते,
कोई तो दर्द होता किसी कोने में, कि कभी बता ना पाते,
कोई तो खुशी बन जाती इतनी बडी, कि आखोँ से भी जता ना पाते.

ख़ुशी छायी होती हर चेहरे पर, और कहीं कलह ना पाते,
किसी के दिल में रह पाते, फ़िर चाहे स्वर्ग में जगह ना पाते,
जानते काश अपने दिल के सारे राज़, चाहे खुद पर फ़तह ना पाते,
कुछ तो होता इतना बेवजह, कि खोजकर भी कभी वज़ह ना पाते.

बेताल होता सब कुछ, कहीं सुर-ताल और लय न पाते,
किसी के इशारे पर धड़कना छोड़ दे, काश ऐसा ह्र्दय ना पाते.
महकती खुशियाँ हर पल उनके ज़ीवन मे, चाहे हम कोई मलय ना पाते,
पाते कुछ भी चाहे मगर.... .... , पर आखोँ के सामने हर पल प्रलय ना पाते.


जाते जहाँ भी, जैसे भी, जब भी , मगर कभी तो जान ना पाते.
अन्जान रहते सारी दुनिया से, और दुनिया उसी को अपनी मान ना पाते,
ईन्सान बनने की एक कसमकश दिखती , चाहे कहीं भगवान ना पाते,
बार बार अन्धेरों मे धकेल देता है , काश वो आत्म-सम्मान ना पाते.

झन्कार मे मदहोश होते कभी तो, फ़िर चाहे संगीत ना पाते,
नफ़रत ही पाते ज़िन्दगी भर चाहे, पर एक पल की प्रीत ना पाते,
हारने के रिवाज़ ना होते कहीं... खोने की हम रीत ना पाते.
उनकी खुशी देख पाते एक बार..., फ़िर चाहे कभी जीत ना पाते.

- पंकज बसलियाल

Friday, July 13, 2007

चले जाना शौक से

चले जाना शौक से , जहाँ शायद हम ना हो.
दर्द तो होगा पर देखना , कहीं आँखे नम ना हो.
मुस्कराना यूं ही , नाम जो मेरा सुन लो कभी,
ये एक वादा कर लो , तो शायद मुझे भी गम ना हो.

Sunday, June 17, 2007

अर्थ का अनर्थ सही

होश में किसी के, ना किसी के ख्वाब में,
संगीत मे किसी के, ना किसी की ताल में,
ये ज़िन्दगी लिखी हुयी कभी कहीं ना मिली,
ना किसी के हाल पे, ना काल के कपाल पे.

खोजा इसे मैंने, हर प्रवत के भाल पे,
दिखी कहीं नही मगर, ज़िन्दगी की चाल ये,
बुझ गयी तमन्ना इस ज़िन्दगी को सीखने की,
ये सोच मे मिली मुझे ना किसी खयाल में.

मेरे साथ ही शायद ,खत्म हो बवाल ये,
जवाब कुछ मिले, मगर रह जायेगा सवाल ये.
मैं मर जाउँगा मगर इसी उम्मीद से कि,
क्या पता मुझे मिले, ये मौत के हि गाल पे .

अर्थ का अनर्थ सही,
सब कुछ ही व्यर्थ सही.
पाने कि हसरत बुझी नहीं,
होंसले कहीं गर्क सही.
- पंकज बसलियाल

Friday, January 26, 2007

कोई तो थी वो मेरी

खोयी हुयी सी इन अंधेरों में, सिर्फ एक नाम सी लगती है,
वो मेरे जैसे ही थी, पर दुनिया को बदनाम सी लगती है .
आज मैं और वो कुछ नहीं एक दूजे के लिए भले ही ,
गीली रेत पे मगर कभी कभी, वो पैरों के निशान सी लगती है .

वो मुस्कराती थी कभी कभी, मुझ पर बिजलियाँ गिराने को ,
वो मुस्कराती थी कभी मुझे जलाने को कभी मनाने को .
वो किसी भी वजह से सही, वो मुस्कराती तो थी मगर ,
दुनिया को रास ना आ सकी , वो ऎसी मुस्कान लगती है..

मैं नहीं जानता कि आज फिर ये वही अफ़सोस क्यों है ?
उसके आँसुओं के जवाब में, हर कोई खामोश क्यों है?
वो मेरी बन ना पायी सब कुछ चाहकर भी और..
मैं ये ना बता पाया कि इसमें भी उसका दोष क्यों है?

खोयी हुयी सी इन अंधेरों में, सिर्फ एक नाम सी लगती है,
वो मेरे जैसे ही थी, पर दुनिया को बदनाम सी लगती है