वो शामें कभी कभी आँखों से यूँ ही टकरा जाती हैं..
दिसम्बर का जाड़ा होता था, foundation day बस ख़त्म हुआ ही होता था.. और semester exams आने वाले होते थे.. पढाई भी लगभग ख़त्म हो चुकी होती थी.. बस कुछ practicals निपटाने होते थे..
कॉलेज ख़त्म होते ही हॉस्टल से change करके cafeteria जाना होता था.. और रास्ते में mess से अपने हिस्से की चाय और snacks लेने भी जरूरी होते थे.. हिस्सा ही होता था वो... चाहे वो कैसा भी हो खाने या पीने में, पर लेना जरूरी सा लगता था..
ऐसी भी कई चीजे लगती थी जिसे ना करते तो कोई फर्क नहीं पड़ता, पर फिर भी करनी ही होती थी... कुल मिला जुला के अपना हिस्सा वसूल करना होता था..
सर्दियाँ कोई बहुत सुहानी नहीं होती थी.. हमेशा ठिठुरने वाली होती थी. लिहाजा पता होता था कि २ घंटे में अँधेरा हो जायेगा, बाहर घूमना थोडा मुश्किल होगा..तो बस वो २ घंटे होते थे जीने के लिए, सारे दोस्तों के साथ, हंसी और मजाक के बीच॥ एकदम खुल के जीने होते थे वो २ घंटे॥
सूरज छिपने के बाद अँधेरा होने से पहले जितनी रौशनी बिखर सकती थी.. उतनी ही बिखरती थी चप्पे चप्पे पे.. कहीं वो ७ लोग एक घेरे में खड़े होके आठवें की जान निचोड़ रहे होते थे.. तो कहीं सिर्फ दो लोग अपनी आपसी समझदारी के बलबूते पचासों आँखों के बीच अपने होने के अहसास से पुलकित सा महसूस कर रहे होते थे... २०-२५ लोग ऐसे भी होते थे..जो कॉलेज uniform को वर्दी की तरह पहन के घूम रहे होते थे... खैर एक अलग मंजर होता था... हर चेहरा जाना पहचाना होता था.. पर हर रूप अलग लगता था.. समय भागता सा महसूस होता था.. ख़त्म होती सी समयसीमा..
वक्त रुकता तो नहीं कभी.. उन दिनों तो ठहरता भी नहीं था...कोहरे की एक हलकी सी परत छाने लगती थी॥ लड़कियां वापस अपने अपने हॉस्टल की तरफ चली जाती थी.. और पीछे छूट जाता था बंजर cafeteria.. वो २ घंटो की चहल पहल के बाद वो cafeteria ऐसा लगता था मानो रेगिस्तान अपने अतीत में हरा भरा होने की दुहाई दे रहा हो.. कुहरा और घना होता जाता था.. कुछ लोग हॉस्टल आ जाते थे.. कुछ mess से dinner करके ही लौटते थे... आश्चर्य होता था, cafeteria और academics block के आसपास का माहौल सिर्फ २ घंटे में सिमट के Mess और PMC के बीच स्थापित हो जाता था..
वही वर्तमान पर हँसते चेहरे , भविष्य से बेखौफ आँखें और अतीत से अनजान वक्त के दरिया में रह रहके हिलोरें मारते हुए अरमानो की लहरें... वो सब नजर आता था... कुछ पलों के लिए ही सही १०० मीटर के उस रास्ते पर ज़िन्दगी नाचती थी... और घुंघुरू तोड़ के नाचती थी...
कोहरा और गहराता जाता.. बस फिर एक फ़र्ज़ के तरह कॉलेज के gate को छूना भर बाकी रह जाता था.. अनंतकाल से इंसान सिर्फ यही तो कर पाया है .. बार बार अपनी हदों को छूने भर की कोशिश.. हमारी हद्द भी बस उसी gate तक थी...
कुहरे के साथ अँधेरा घुलने लगता तो अहसास होता था कि सर्दियाँ शुरू हो गयी हैं॥ सब रास्ते ख़ुद को समेटने लगते थे॥ अगले २० घंटे बस इसी रफ्तार से गुजरने होते थे.. फिर एक नयी शाम के लिए , एक अलग ही वेग के साथ...