तेरे मेरे साथ जो होता है....
जीवन के अहसासों को लफ्ज़ देने की ये मेरी कोशिश.. कहीं सिर्फ तेरे नाम में सिमट के ना रह जाए...
Monday, October 5, 2009
त्यागी , दर्शन और दोस्ती
त्यागी याद आया तो दर्शन भी याद आ ही जाता है.. हालाँकि इसका उल्टा कम ही होता है कि दर्शन याद आये तो त्यागी भी याद आ जाये और उसके अपने स्वाभाविक कारण भी हैं..
हम तीन दोस्त थे... दोस्त अक्सर एक जैसे होते हैं, एक जैसी आदतों वाले या फिर व्यवहार वाले .. हम तीन अलग अलग दिशाएं थे.. सब कुछ सही था बस एक चौथी दिशा की कमी थी.. वरना त्यागी पूर्व था दर्शन पश्चिम और तो मैं एकदम उत्तर.. कुल मिलाजुलाकर हम तीनो बहुत अलग थे.. पर हम बहुत अच्छे दोस्त थे.. आज भी हैं पर जिंदगी के विस्तार में ये रिश्ता दोस्ती के तराजू में कभी ऊपर तो कभी नीचे होता रहता है..
हाँ, तो बात त्यागी की हो रही थी.. बहुत हिम्मती लड़का है जी.. कोई भी काम बोल दो.. हमेशा साथ देने को तैयार.. पर शर्त ये कि काम कुछ उल्टा होना चाहिए.. मतलब कोई तो रुल ब्रेक होना चाहिए ऐसा कोई काम हो ..
खैर त्यागी को कुछ बोलने जाओ तो कम से कम सुनता तो था.. भगवान ही जानता है कि पल्ले कितना पड़ता था पर सुनता तो था कम से कम ... इसके ठीक उलट दर्शन ... उसे कुछ सुनाने जाओ तो उसके बचपन की कम से कम २०-३० कहानियां सुनके वापस आना पड़ता था... २०-३० तो ज्यादा हो गयी पर १६-१७ तो भाई हसीं मजाक में सुना ही देता था..
अब व्यक्तित्व का टकराव देखिये साहब.. एक शुरुआत के कुछ साल सिर्फ लड़कियों से घिरा रहा तो दूसरा दूर भागता रहा.. ( हालाँकि ऐसा सिर्फ सांत्वना देने के लिए लिखा जा रहा है..) और कॉलेज के आखिरी सालों में दोनों ने रोल बदल लिए.. अब पहला लड़कियों से भागने की कोशिश करता था तो दूसरा परेशान था कि कहानी कहाँ आगे बढाई जाये... अब ये विचार का एक अलग मुद्दा हो सकता है कि हम तीनो ही लड़कियों के मामले में उस कॉलेज से कोरे हाथ ही बाहर आये, इतनी तमाम कहानियों के बावजूद भी.. मैं उन समस्त कहानियों की नायिकाओं एवं रकीबों को तह-ए-दिल से माफ़ करता हूँ जिसके नायक हममें से कोई भी रहा हो....
हाँ जी , मुद्दे पे वापस आते हैं.. त्यागी अपनी बास्केटबाल टीम का कप्तान था... नहीं नहीं भाई मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ...सच में वो कप्तान था..
खैर उसका बस चलता तो वो हर स्पोर्ट्स टीम का कैप्टेन बन सकता था.. पर शराफत से भाई ने मुझसे बोला.. "अबे !!! जो खेलना आता है उसी का तो कैप्टेन बनूँगा ना.." मैंने भी सोचा बात में दम तो है.. पर फिर बास्केटबाल क्यूँ ?
खैर दर्शन भी अपनी टीम का कैप्टेन था.. क्रिकेट या बालीबाल का शायद.. अब शायद इसीलिए कि जिस टीम की कप्तानी वो कर रहा हो.. उस टीम को तो छोडिये मुझे तो डर था कि लोग कहीं वो खेल देखना ही ना छोड़ दें कॉलेज में.. पर शुक्र है ऐसा हुआ नहीं. लोगो की दिलचस्पी बरक़रार रही.. मैं भी खेल लेता था कभी कभी.. अब जिसके दो दोस्त कप्तान हों वो कुछ खेले ना तो धिक्कार है ऐसी दोस्ती पे.. मुझे तो बल्कि प्रमाणपत्र भी मिला है क्रिकेट में प्रथम स्थान पाने को..वो अलग बात है कि मैंने पूरे टूर्नामेंट में सिर्फ ७ बाळ के लिए फील्डिंग करी है.. बैटिंग और बालिंग तो खैर छोडिये..
चलो, पढाई की बात करते हैं.. दर्शन की तरह दर्शन की पढाई भी रहस्यमयी थी, कब कहाँ कैसे ये सवाल आज भी जस के तस बरक़रार हैं .... और त्यागी की तरह त्यागी की पढाई रोमांच से भरपूर.. रोमांच की पराकाष्ठा देखिये त्यागी दिन के आधे से अधिक समय लाइब्रेरी में ही पढाई करता था.. पर दोनों ने गाहे-बगाहे बहुत से और लोगो के साथ मिलकर मेरी काफी मदद की है और सच कहूँ तो मेरे इंजीनियरिंग पूरा कर सकने में दोनों का बहुत बड़ा योगदान है..
किस्से कई हैं , अंतर कई हैं, बातें बहुत हैं.. पर कोई चीज अगर सिर्फ एक है तो वो है दोस्ती..
सारांश में कहूँ तो इतना कि मेरे दोनों दोस्तों के व्यक्तित्व में जो अंतर था उसने मुझे एक जगह दी उनके बीच में अपनी हसरतों के पल सकने की.. दोनों जितने ज्यादा अलग थे एक दुसरे से, हम तीनो उतने ही करीब थे..
कभी कभी दर्शन कहता है कि जब उसे मदद कि जरूरत होगी तो मेरे पास आने के बजाय त्यागी से मदद माँगेगा.. और ये इस पूरे ब्लॉग का इकलौता ऐसा सच है जो मजाक नहीं है..
कल मेरा जन्मदिन है :) तो सोचा उससे पहले अपने दो बेहतरीन दोस्तों को याद करूँ ताकि नए साल में प्रवेश करते हुए दोस्ती को लेकर मेरी जो इच्छाएं है.. वो अपना मकाम हासिल कर सकें..
इति समाप्त:
Saturday, September 19, 2009
उन शामों की रफ़्तार
दिसम्बर का जाड़ा होता था, foundation day बस ख़त्म हुआ ही होता था.. और semester exams आने वाले होते थे.. पढाई भी लगभग ख़त्म हो चुकी होती थी.. बस कुछ practicals निपटाने होते थे..
कॉलेज ख़त्म होते ही हॉस्टल से change करके cafeteria जाना होता था.. और रास्ते में mess से अपने हिस्से की चाय और snacks लेने भी जरूरी होते थे.. हिस्सा ही होता था वो... चाहे वो कैसा भी हो खाने या पीने में, पर लेना जरूरी सा लगता था..
ऐसी भी कई चीजे लगती थी जिसे ना करते तो कोई फर्क नहीं पड़ता, पर फिर भी करनी ही होती थी... कुल मिला जुला के अपना हिस्सा वसूल करना होता था..
सर्दियाँ कोई बहुत सुहानी नहीं होती थी.. हमेशा ठिठुरने वाली होती थी. लिहाजा पता होता था कि २ घंटे में अँधेरा हो जायेगा, बाहर घूमना थोडा मुश्किल होगा..तो बस वो २ घंटे होते थे जीने के लिए, सारे दोस्तों के साथ, हंसी और मजाक के बीच॥ एकदम खुल के जीने होते थे वो २ घंटे॥
सूरज छिपने के बाद अँधेरा होने से पहले जितनी रौशनी बिखर सकती थी.. उतनी ही बिखरती थी चप्पे चप्पे पे.. कहीं वो ७ लोग एक घेरे में खड़े होके आठवें की जान निचोड़ रहे होते थे.. तो कहीं सिर्फ दो लोग अपनी आपसी समझदारी के बलबूते पचासों आँखों के बीच अपने होने के अहसास से पुलकित सा महसूस कर रहे होते थे... २०-२५ लोग ऐसे भी होते थे..जो कॉलेज uniform को वर्दी की तरह पहन के घूम रहे होते थे... खैर एक अलग मंजर होता था... हर चेहरा जाना पहचाना होता था.. पर हर रूप अलग लगता था.. समय भागता सा महसूस होता था.. ख़त्म होती सी समयसीमा..
वक्त रुकता तो नहीं कभी.. उन दिनों तो ठहरता भी नहीं था...कोहरे की एक हलकी सी परत छाने लगती थी॥ लड़कियां वापस अपने अपने हॉस्टल की तरफ चली जाती थी.. और पीछे छूट जाता था बंजर cafeteria.. वो २ घंटो की चहल पहल के बाद वो cafeteria ऐसा लगता था मानो रेगिस्तान अपने अतीत में हरा भरा होने की दुहाई दे रहा हो.. कुहरा और घना होता जाता था.. कुछ लोग हॉस्टल आ जाते थे.. कुछ mess से dinner करके ही लौटते थे... आश्चर्य होता था, cafeteria और academics block के आसपास का माहौल सिर्फ २ घंटे में सिमट के Mess और PMC के बीच स्थापित हो जाता था..
वही वर्तमान पर हँसते चेहरे , भविष्य से बेखौफ आँखें और अतीत से अनजान वक्त के दरिया में रह रहके हिलोरें मारते हुए अरमानो की लहरें... वो सब नजर आता था... कुछ पलों के लिए ही सही १०० मीटर के उस रास्ते पर ज़िन्दगी नाचती थी... और घुंघुरू तोड़ के नाचती थी...
कोहरा और गहराता जाता.. बस फिर एक फ़र्ज़ के तरह कॉलेज के gate को छूना भर बाकी रह जाता था.. अनंतकाल से इंसान सिर्फ यही तो कर पाया है .. बार बार अपनी हदों को छूने भर की कोशिश.. हमारी हद्द भी बस उसी gate तक थी...
कुहरे के साथ अँधेरा घुलने लगता तो अहसास होता था कि सर्दियाँ शुरू हो गयी हैं॥ सब रास्ते ख़ुद को समेटने लगते थे॥ अगले २० घंटे बस इसी रफ्तार से गुजरने होते थे.. फिर एक नयी शाम के लिए , एक अलग ही वेग के साथ...
Saturday, August 8, 2009
अक्तूबर २००२
बन न पाऊं कभी विकास |
हो सके प्रभु, गर तेरे बस में,
कर दे जीवनशक्ति का विनास |
मैं झूलता रहूँ कुपित सृष्टिपथ पर,
न न्योछावर हो जाऊं किसी शपथ पर,
कभी न चलूँ अब इस ज़मीन पर,
कर दे सवार मुझे मृत्युरथ पर,
अपनी अक्षमता और अविवेक का,
हो न पाए कभी ह्रास |
हो सके प्रभु, गर तेरे बस में,
कर दे जीवनशक्ति का विनास |
मैं अब्रह्माण्ड की माया का जालभुक्त न बनू कभी,
एक एक कर तोड़ दे, साथ मेरे हैं जो सभी,
लोभी बन जाऊं प्रलोभ का, जी ना पाऊं चैन से,
मृत्यु आ अंक लगा, और वरन कर मेरा अभी|
भूत मेरा खो चुका और भविष्य बना दे तू इतिहास |
हो सके प्रभु, गर तेरे बस में,
कर दे जीवनशक्ति का विनास |
Friday, March 14, 2008
तुम भाग-२
रोशन कर दे ज़र्रा ज़र्रा , पूनम की रात हो तुम,
मेरे लिये वजह तो कभी कुछ थी ही नहीं मगर,
जीता हूँ जिस जिसके लिये , वो हर बात हो तुम।
खुशनुमा सुबह हो, या उससे पहले की सहर हो तुम,
वक़्त हो पल भर का,या जीवन का हर प्रहर हो तुम,
चाँद को कह तो दूँ , प्रतिमान सुन्दरता का मगर,
चाँदनी की किस्मत पर , रूप का कहर हो तुम।
सिर्फ एक मौसम हो , या पूरी बहार हो तुम,
पहली खामोशी हो , या आखिरी पुकार हो तुम,
लड़ने की आरज़ू हो, या मरने की हसरत हो,
जीत हो किसी की ,या किसी की हार हो तुम।
अहसास तुमको ना सही , किसी का अहसास हो तुम,
दुनिया बदल दे जो, दिल की वो आवाज़ हो तुम,
खुद की अहमियत से हो अन्जान, पर अब तो जान लो,
कि सुरों की थिरकन हो , जीवन का साज हो तुम।
क्षितिज हो किसी का, किसी का फलक हो,
हंसने की वज़ह हो, खुशियों की झलक हो,
अपने वज़ूद को समझने की कोशिश तो करो,
लड़ने का इरादा हो तुम, जीत की ललक हो.
Sunday, March 2, 2008
Sunday, January 13, 2008
वो मिट्टी
वो मिट्टी पुकारती है , वो ज़मीन बुलाती है ;
जीते मरते हर पल , मुझे तेरी याद आती है ;
कुछ साँसे थम सी गयी हैं, तुझसे जुदा होकर ,
तुझसे मिलने की ख्वाहिस, एक जिंदगी दे जाती है;
वो मन्दिर की घंटी , वो मस्जिद की अजान,
वो किताबों में कहीं , वो गीता और कुरान ,
मैं देखता हूँ ,आजकल सोते जागते हर जगह ,
वो होता महाभारत , वो कन्हैया की मुस्कान ;
है एक यही ख्वाहिश , है एक यही आरजू ;
वो बिखरती रेत और वो मिट्टी की खुशबू ;
मैं छूना चाहता हूँ , तुझे एक बार फ़िर से ;
यही है मकसद अब , यही मेरी जुस्तजू ;
- पंकज बसलियाल ( १३ जनवरी २००८ , स्वदेस देखने के बाद )
Tuesday, December 25, 2007
मैं खुश हूँ
जी , मैं खुश हूँ .
आपने सही सुना , कि मैं खुश हूँ .
शायद आज किसी को रोते नहीं देखा ,
नंगे बदन फ़ुटपॉथ पर सोते नहीं देखा ,
शायद रिश्तों की कालिख छुपी रही आज,
तो किसी को टूटी माला पिरोते नहीं देखा.
आज भी भगवान को किसी की सुनते नहीं देखा,
पर हाँ, आज किसी के सपनों को लुटते नहीं देखा,
तन्हा नहीं देखा , किसी को परेशान नहीं देखा,
पाई पाई को मोहताज, सपनों को घुटते नहीं देखा.
बैचैनी नहीं दिखी, कहीं मायुसी नजर ना आयी ,
कहीं कुछ गलत होने की भी कोई खबर ना आयी,
सब कुछ आज वाकई इतना सही क्यों था आखिर,
कि दर्द ढूंढती मेरी निगाहें कहीं पे ठहर ना पायी .
मैं खुश हूं वाकई, पर कुछ हो जाने से नहीं
कुछ ना हो पाने से खुश हूँ कुछ पाने से नहीं
किसी के जाने से खुश हूँ, किसी के आने से नहीं
किसी के रूठ जाने से, किसी के मनाने से नहीं
पर ये खुशी की खनक मेरे आस पास ही थी,
कई अनदेखी आँखें आज भी उदास ही थी,
मैनें कुछ नहीं देखा, का मतलब खुशहाली तो नहीं
मेरे अकेले की खुशी, एक अधूरा अहसास ही थी..
वो दिन आयेगा शायद, जब हर कोई खुशी देख सकेगा,
बिन आँसू और गमो के जब हर कोई रह सकेगा.
खुशी सही मायनों में वो होगी तब,
"मैं खुश हूँ" ... जिस दिन हर इन्सान ये कह सकेगा..
Tuesday, July 17, 2007
पर एक पल की प्रीत ना पाते
कुछ तो होता पास अपने, जो कभी लुटा ना पाते,
कोई तो याद चुभती इतनी , कि कभी भुला ना पाते,
कोई तो बात इतनी कड़वी होती, कि किसी को सुना ना पाते,
कोई तो होता खुश इस कदर, कि हम भी उसे रुला ना पाते.
ख़ुशियों की होती इतनी कीमत, कि किसी को चुका ना पाते,
कोई तो रात होती इतनी अभागी, कि किसी को सुला ना पाते,
आसूं बहते रोज़ यूं ही, मगर इन आखोँ को सुजा ना पाते,
कोई तो आग जलती सीने मे, जिसे चाहकर भी बुझा ना पाते.
कोई तो सबक होता ऐसा, जिसे किसी को सिखा ना पाते,
कोई तो ज़ख्म होता इतना गहरा, कि कभी तुम्हें दिखा ना पाते,
कभी तो मरता वक़्त युं भी, कि तकदीर से भी ज़िला ना पाते,
कोई तो बिछुड़ता इस कदर, कि उमर भर फ़िर मिला ना पाते.
कोई ज़ुर्म किया होता ऐसा, कि उसकी हम सज़ा ना पाते,
पाते दुश्मनी हर जगह, पर दोस्त से कभी दगा ना पाते,
कोई तो दर्द होता किसी कोने में, कि कभी बता ना पाते,
कोई तो खुशी बन जाती इतनी बडी, कि आखोँ से भी जता ना पाते.
ख़ुशी छायी होती हर चेहरे पर, और कहीं कलह ना पाते,
किसी के दिल में रह पाते, फ़िर चाहे स्वर्ग में जगह ना पाते,
जानते काश अपने दिल के सारे राज़, चाहे खुद पर फ़तह ना पाते,
कुछ तो होता इतना बेवजह, कि खोजकर भी कभी वज़ह ना पाते.
बेताल होता सब कुछ, कहीं सुर-ताल और लय न पाते,
किसी के इशारे पर धड़कना छोड़ दे, काश ऐसा ह्र्दय ना पाते.
महकती खुशियाँ हर पल उनके ज़ीवन मे, चाहे हम कोई मलय ना पाते,
पाते कुछ भी चाहे मगर.... .... , पर आखोँ के सामने हर पल प्रलय ना पाते.
जाते जहाँ भी, जैसे भी, जब भी , मगर कभी तो जान ना पाते.
अन्जान रहते सारी दुनिया से, और दुनिया उसी को अपनी मान ना पाते,
ईन्सान बनने की एक कसमकश दिखती , चाहे कहीं भगवान ना पाते,
बार बार अन्धेरों मे धकेल देता है , काश वो आत्म-सम्मान ना पाते.
झन्कार मे मदहोश होते कभी तो, फ़िर चाहे संगीत ना पाते,
नफ़रत ही पाते ज़िन्दगी भर चाहे, पर एक पल की प्रीत ना पाते,
हारने के रिवाज़ ना होते कहीं... खोने की हम रीत ना पाते.
उनकी खुशी देख पाते एक बार..., फ़िर चाहे कभी जीत ना पाते.
- पंकज बसलियाल
Friday, July 13, 2007
चले जाना शौक से
चले जाना शौक से , जहाँ शायद हम ना हो.
दर्द तो होगा पर देखना , कहीं आँखे नम ना हो.
मुस्कराना यूं ही , नाम जो मेरा सुन लो कभी,
ये एक वादा कर लो , तो शायद मुझे भी गम ना हो.
Sunday, June 17, 2007
अर्थ का अनर्थ सही
संगीत मे किसी के, ना किसी की ताल में,
ये ज़िन्दगी लिखी हुयी कभी कहीं ना मिली,
ना किसी के हाल पे, ना काल के कपाल पे.
खोजा इसे मैंने, हर प्रवत के भाल पे,
दिखी कहीं नही मगर, ज़िन्दगी की चाल ये,
बुझ गयी तमन्ना इस ज़िन्दगी को सीखने की,
ये सोच मे मिली मुझे ना किसी खयाल में.
मेरे साथ ही शायद ,खत्म हो बवाल ये,
जवाब कुछ मिले, मगर रह जायेगा सवाल ये.
मैं मर जाउँगा मगर इसी उम्मीद से कि,
क्या पता मुझे मिले, ये मौत के हि गाल पे .
अर्थ का अनर्थ सही,
सब कुछ ही व्यर्थ सही.
पाने कि हसरत बुझी नहीं,
होंसले कहीं गर्क सही.
- पंकज बसलियाल